Saturday, 24 August 2013

कुदरत

प्रदुषण विरुद्ध ऐलाने जंग

भर दे पर्यावरण के रंग 

….

ताजगी की चाह में हम घुटते जा रहे है 

जीवनदायिनी हवा को विषैला बना रहे है  





कुदरत

न किसी फरमान , न एहसान की मोहताज होती है

कुदरत तो खुद खजानों से , सजा ताज होती है

आदिकाल से ले अब तक , लगे सुलझाने जिसे

गुत्थियाँ कई है उलझी हुई , वो राज़ होती है

तय किया इसने , अपनी रहमतों-नेमतों का समां

अनुशासन की धुन से सजा साज होती है

कभी नाज़ होती है , कभी हमराज़ होती है

चीरहरण करते हम जब इसका , प्रदुषण बन

सैलाब, जलजला, सुनामी बन नाराज़ होती है

चहकते बड़े पशु पक्षी , महकते बेल बूते बहुत

सावन बसंत बन , जब आगाज़ होती हैं

शर्मीली बड़ी ओढ़े हुए , ओज़ोन की चुनरी यह

न छेड़ो खेंचो चुनरी , वही इसकी लाज होती है

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