कुदरत
प्रदुषण विरुद्ध ऐलाने जंग
भर दे पर्यावरण के रंग
….
ताजगी की चाह में हम घुटते जा रहे है
जीवनदायिनी हवा को विषैला बना रहे है
न किसी फरमान , न एहसान की मोहताज होती है
कुदरत तो खुद खजानों से , सजा ताज होती है
आदिकाल से ले अब तक , लगे सुलझाने जिसे
गुत्थियाँ कई है उलझी हुई , वो राज़ होती है
तय किया इसने , अपनी रहमतों-नेमतों का समां
अनुशासन की धुन से सजा साज होती है
कभी नाज़ होती है , कभी हमराज़ होती है
चीरहरण करते हम जब इसका , प्रदुषण बन
सैलाब, जलजला, सुनामी बन नाराज़ होती है
चहकते बड़े पशु पक्षी , महकते बेल बूते बहुत
सावन बसंत बन , जब आगाज़ होती हैं
शर्मीली बड़ी ओढ़े हुए , ओज़ोन की चुनरी यह
न छेड़ो खेंचो चुनरी , वही इसकी लाज होती है
No comments:
Post a Comment